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http://vijaimathur05.blogspot.in/2015/10/blog-post_12.html
इसी प्रकार अन्य पर्वों पर भी पूजा की सही प्रक्रिया 'हवन'- यज्ञ ही है। आयुर्वेद जो 'अथर्व वेद' का ही एक भाग है में प्राचीन वैद्य रोगी को नासिका के माध्यम से औषद्धीय धूम्र प्रेषित करके उसके रक्त, मांस-पेशियों से विकारों का शमन कर देते थे और इस प्रकार रोगी शीघ्र स्वास्थ्य लाभ प्राप्त कर लेता था। वैसे भी हवन सामाग्री में मिलाये जाने वाले पदार्थ औषद्धीय गुणों से भरपूर होते हैं। यथा ---
1) - बूरा : इसमें क्षय TB के रोगाणुओं को नष्ट करने की क्षमता होती है।
2) - गुग्गल : इसमें प्रकृतिक जन्य (RAW CALCIAM ) पाया जाता है। इसी लिए पहले जब बचपन से ही हवन करने की आदत होती थी तब लोगों की हड्डियाँ मजबूत होती थी। लेकिन आजकल हवन को त्याग कर मंदिर, मस्जिद, मज़ार, चर्च, गुरुद्वारा आदि-आदि अनेकानेक जगह जाने और उसे पूजा कहने का फैशन चल रहा है। इसीलिए बुढ़ापे में हड्डियों के टूटने विशेष कर कूल्हे की हड्डी के बहुत जल्दी टूटने के मामले बढ़ते जा रहे हैं। राड, स्क्रू के सहारे से हड्डियों को जोड़ा जाता है। इस तकलीफ और खर्च को लोग खुशी-खुशी बर्दाश्त करते हैं लेकिन हवन करने को खुराफात समझा जाता है।
3) - घी: शरीर में स्निग्धता बनाए रखने के लिए ज़रूरी होता है जब हवन करते थे इसके परमाणु नासिका के जरिये रक्त में मिल जाते थे जिससे अब वंचित हैं। मुख से लिए वसा पदार्थ यकृत -लीवर तथा गुर्दे-किडनी के लिए हानिकारक होते हैं । इसके अतिरिक्त उनसे चर्बी बढ्ने व शरीर के थुलथुल होने के मामले बढ़ रहे हैं। डायलेसिस पर अब निर्भरता बढ़ गई है।
हवन में डाले गए घी के परमाणु वायु द्वारा प्रेषित किए जाने से बादलों के नीचे जम जाते थे जिनसे वर्षा होने में सहायता मिलती थी। लेकिन अब हवन का परित्याग किए जाने से 'अनावृष्टि' व 'अति वृष्टि' के प्रकोप का सामना करना पड़ रहा है जिससे खाद्यान का भी संकट खड़ा हो जाता है।
4) - अन्य उपचार : रोगानुसार जड़ी-बूटियाँ आदि हवन सामाग्री में मिला कर रोग का शमन सुगमतापूर्वक कर लिया जाता था। जैसे कि उदर रोगों के लिए 'बेल पत्र' को मिला देते थे। नसों की सूजन विशेष कर मूत्र मार्ग की नसों की सूजन को दूर करने हेतु धतूरे के बीज मिला देते थे। लेकिन आज इनको मंदिरों में व्यर्थ नष्ट कर दिया जाता है। परिणाम स्वरूप इलाज पर भारी भरकम खर्च करना व परेशानी उठाना पड़ता है।
हृदय रोग के उपचार के लिए पीपल के पत्ते व अर्जुन की छाल मिला लेते थे। लेकिन अब हवन परित्याग से इसका स्थान एनजियो प्लास्टी/बेलूनिंग/ पेसमेकर आदि ने ले लिया है ।
वास्तव में हवन-यज्ञ पद्धति ही पूजा की सही पद्धति है। क्यों? क्योंकि 'पदार्थ- विज्ञान ' (MATERIAL SCIENCE ) के अनुसार हवन की आहुती में डाले गए पदार्थ अग्नि द्वारा परमाणुओं (ATOMS ) में विभक्त कर दिये जाते हैं। वायु इन परमाणुओं को प्रसारित कर देती है। 50 प्रतिशत परमाणु यज्ञ- हवन कर्ताओं को अपनी नासिका द्वारा शरीर के रक्त में प्राप्त हो जाते हैं। 50 प्रतिशत परमाणु वायु द्वारा बाहर प्रसारित कर दिये जाते हैं जो सार्वजनिक रूप से जन-कल्याण का कार्य करते हैं। हवन सामग्री की जड़ी-बूटियाँ औषद्धीय रूप से सार्वजनिक स्वास्थ्य रक्षा का कार्य सम्पन्न करती हैं। यह हवन 'धूम्र चिकित्सा' का कार्य करता है। अतः ढोंग-पाखंड-आडंबर-पुरोहितवाद छोड़ कर अपनी प्राचीन हवन पद्धति को अपना कर नवरात्र मनाए जाएँ तो व्यक्ति, परिवार, समाज, देश व दुनिया का कल्याण संभव है। काश जनता को जागरूक किया जा सके !
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इसी प्रकार अन्य पर्वों पर भी पूजा की सही प्रक्रिया 'हवन'- यज्ञ ही है। आयुर्वेद जो 'अथर्व वेद' का ही एक भाग है में प्राचीन वैद्य रोगी को नासिका के माध्यम से औषद्धीय धूम्र प्रेषित करके उसके रक्त, मांस-पेशियों से विकारों का शमन कर देते थे और इस प्रकार रोगी शीघ्र स्वास्थ्य लाभ प्राप्त कर लेता था। वैसे भी हवन सामाग्री में मिलाये जाने वाले पदार्थ औषद्धीय गुणों से भरपूर होते हैं। यथा ---
1) - बूरा : इसमें क्षय TB के रोगाणुओं को नष्ट करने की क्षमता होती है।
2) - गुग्गल : इसमें प्रकृतिक जन्य (RAW CALCIAM ) पाया जाता है। इसी लिए पहले जब बचपन से ही हवन करने की आदत होती थी तब लोगों की हड्डियाँ मजबूत होती थी। लेकिन आजकल हवन को त्याग कर मंदिर, मस्जिद, मज़ार, चर्च, गुरुद्वारा आदि-आदि अनेकानेक जगह जाने और उसे पूजा कहने का फैशन चल रहा है। इसीलिए बुढ़ापे में हड्डियों के टूटने विशेष कर कूल्हे की हड्डी के बहुत जल्दी टूटने के मामले बढ़ते जा रहे हैं। राड, स्क्रू के सहारे से हड्डियों को जोड़ा जाता है। इस तकलीफ और खर्च को लोग खुशी-खुशी बर्दाश्त करते हैं लेकिन हवन करने को खुराफात समझा जाता है।
3) - घी: शरीर में स्निग्धता बनाए रखने के लिए ज़रूरी होता है जब हवन करते थे इसके परमाणु नासिका के जरिये रक्त में मिल जाते थे जिससे अब वंचित हैं। मुख से लिए वसा पदार्थ यकृत -लीवर तथा गुर्दे-किडनी के लिए हानिकारक होते हैं । इसके अतिरिक्त उनसे चर्बी बढ्ने व शरीर के थुलथुल होने के मामले बढ़ रहे हैं। डायलेसिस पर अब निर्भरता बढ़ गई है।
हवन में डाले गए घी के परमाणु वायु द्वारा प्रेषित किए जाने से बादलों के नीचे जम जाते थे जिनसे वर्षा होने में सहायता मिलती थी। लेकिन अब हवन का परित्याग किए जाने से 'अनावृष्टि' व 'अति वृष्टि' के प्रकोप का सामना करना पड़ रहा है जिससे खाद्यान का भी संकट खड़ा हो जाता है।
4) - अन्य उपचार : रोगानुसार जड़ी-बूटियाँ आदि हवन सामाग्री में मिला कर रोग का शमन सुगमतापूर्वक कर लिया जाता था। जैसे कि उदर रोगों के लिए 'बेल पत्र' को मिला देते थे। नसों की सूजन विशेष कर मूत्र मार्ग की नसों की सूजन को दूर करने हेतु धतूरे के बीज मिला देते थे। लेकिन आज इनको मंदिरों में व्यर्थ नष्ट कर दिया जाता है। परिणाम स्वरूप इलाज पर भारी भरकम खर्च करना व परेशानी उठाना पड़ता है।
हृदय रोग के उपचार के लिए पीपल के पत्ते व अर्जुन की छाल मिला लेते थे। लेकिन अब हवन परित्याग से इसका स्थान एनजियो प्लास्टी/बेलूनिंग/ पेसमेकर आदि ने ले लिया है ।