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कल से नव - विक्रमी संवत का प्रारम्भ हो रहा है और 'नवरात्र पर्व ' भी। अब से दस लाख वर्ष पूर्व जब इस धरती पर 'मानव जीवन ' की सृष्टि हुई तब अफ्रीका, यूरोप व त्रि वृष्टि (वर्तमान तिब्बत ) में 'युवा पुरुष' व 'युवा - नारी ' के रूप में ही। जहां प्रकृति ने राह दी वहाँ मानव बढ़ गया और जहां प्रकृति की विषमताओं ने रोका वहीं वह रुक गया। त्रि वृष्टि का मानव अफ्रीका व यूरोप के मुक़ाबले अधिक विकास कर सका और हिमालय पर्वत पार कर दक्षिण में उस 'निर्जन' प्रदेश में आबाद हुआ जिसे उसने 'आर्यावृत ' सम्बोधन दिया। आर्य शब्द आर्ष का अपभ्रंश था जिसका अर्थ है 'श्रेष्ठ ' । यह न कोई जाति है न संप्रदाय और न ही मजहब । आर्यावृत में वेदों का सृजन इसलिए हुआ था कि, मानव जीवन को उस प्रकार जिया जाये जिससे वह श्रेष्ठ बन सके। परंतु यूरोपीय व्यापारियों ने मनगढ़ंत कहानियों द्वारा आर्य को यूरोपीय जाति के रूप में प्रचारित करके वेदों को गड़रियों के गीत घोषित कर दिया और यह भी कि, आर्य आक्रांता थे जिनहोने यहाँ के मूल निवासियों को उजाड़ कर कब्जा किया था। आज मूल निवासी आंदोलन उन मनगढ़ंत कहानियों के आधार पर 'वेद' की आलोचना करता है और तथाकथित नास्तिक/ एथीस्ट भी जबकि पोंगापंथी ब्राह्मण ढोंग-पाखंड-आडंबर को धर्म के रूप में प्रचारित करते हैं व पुराणों के माध्यम से जनता को गुमराह करके वेद व पुराण को एक ही बताते हैं।
चारों वेदों में जीवन के अलग-अलग आयामों का उल्लेख है। 'अथर्व वेद ' अधिकांशतः 'स्वास्थ्य ' संबंधी आख्यान करता है। 'मार्कन्डेय चिकित्सा पद्धति ' अथर्व वेद पर आधारित है जिसका वर्णन किशोर चंद्र चौबे जी ने किया है। इस वर्णन के अनुसार 'नवरात्र ' में नौ दिन नौ औषद्धियों का सेवन कर के जीवन को स्वस्थ रखना था। किन्तु पोंगा पंथी कन्या -पूजन, दान , भजन, ढोंग , शोर शराबा करके वातावरण भी प्रदूषित कर रहे हैं व मानव जीवन को विकृत भी। क्या मनुष्य बुद्धि, ज्ञान व विवेक द्वारा मनन ( जिस कारण 'मानव' कहलाता है ) करके ढोंग-पाखंड-आडंबर का परित्याग करते हुये इन दोनों नवरात्र पर्वों को स्वास्थ्य रक्षा के पर्वों के रूप में पुनः नहीं मना सकता ?
(विजय राजबली माथुर )
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कल से नव - विक्रमी संवत का प्रारम्भ हो रहा है और 'नवरात्र पर्व ' भी। अब से दस लाख वर्ष पूर्व जब इस धरती पर 'मानव जीवन ' की सृष्टि हुई तब अफ्रीका, यूरोप व त्रि वृष्टि (वर्तमान तिब्बत ) में 'युवा पुरुष' व 'युवा - नारी ' के रूप में ही। जहां प्रकृति ने राह दी वहाँ मानव बढ़ गया और जहां प्रकृति की विषमताओं ने रोका वहीं वह रुक गया। त्रि वृष्टि का मानव अफ्रीका व यूरोप के मुक़ाबले अधिक विकास कर सका और हिमालय पर्वत पार कर दक्षिण में उस 'निर्जन' प्रदेश में आबाद हुआ जिसे उसने 'आर्यावृत ' सम्बोधन दिया। आर्य शब्द आर्ष का अपभ्रंश था जिसका अर्थ है 'श्रेष्ठ ' । यह न कोई जाति है न संप्रदाय और न ही मजहब । आर्यावृत में वेदों का सृजन इसलिए हुआ था कि, मानव जीवन को उस प्रकार जिया जाये जिससे वह श्रेष्ठ बन सके। परंतु यूरोपीय व्यापारियों ने मनगढ़ंत कहानियों द्वारा आर्य को यूरोपीय जाति के रूप में प्रचारित करके वेदों को गड़रियों के गीत घोषित कर दिया और यह भी कि, आर्य आक्रांता थे जिनहोने यहाँ के मूल निवासियों को उजाड़ कर कब्जा किया था। आज मूल निवासी आंदोलन उन मनगढ़ंत कहानियों के आधार पर 'वेद' की आलोचना करता है और तथाकथित नास्तिक/ एथीस्ट भी जबकि पोंगापंथी ब्राह्मण ढोंग-पाखंड-आडंबर को धर्म के रूप में प्रचारित करते हैं व पुराणों के माध्यम से जनता को गुमराह करके वेद व पुराण को एक ही बताते हैं।
चारों वेदों में जीवन के अलग-अलग आयामों का उल्लेख है। 'अथर्व वेद ' अधिकांशतः 'स्वास्थ्य ' संबंधी आख्यान करता है। 'मार्कन्डेय चिकित्सा पद्धति ' अथर्व वेद पर आधारित है जिसका वर्णन किशोर चंद्र चौबे जी ने किया है। इस वर्णन के अनुसार 'नवरात्र ' में नौ दिन नौ औषद्धियों का सेवन कर के जीवन को स्वस्थ रखना था। किन्तु पोंगा पंथी कन्या -पूजन, दान , भजन, ढोंग , शोर शराबा करके वातावरण भी प्रदूषित कर रहे हैं व मानव जीवन को विकृत भी। क्या मनुष्य बुद्धि, ज्ञान व विवेक द्वारा मनन ( जिस कारण 'मानव' कहलाता है ) करके ढोंग-पाखंड-आडंबर का परित्याग करते हुये इन दोनों नवरात्र पर्वों को स्वास्थ्य रक्षा के पर्वों के रूप में पुनः नहीं मना सकता ?
(विजय राजबली माथुर )
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