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Friday, 8 May 2015

टी बी कारण और निवारण (भाग-2 ) --- विजय राजबली माथुर

गतांक से आगे :
http://vijaimathur05.blogspot.in/2015/03/blog-post.html 

ज्वर की तीव्रता में निम्न योग अच्छा है :

(1 ) मुक्ता पंचामृत                 - 1 रत्ती 
      पंचानन रस                    - 1 रत्ती 
     अमृता सत्व                   -2 रत्ती 
ऐसी दो मात्राएं मधु ( शहद ) से दें । 

( 2 ) शुद्ध नवसार              - 2 रत्ती 
      अमृतारिष्ट               - 1 टोला 
समान जल मिला कर भोजनोपरांत । 

(3 ) चंद्रामृत रस            -4 रत्ती 
      सितोपलादि           - 1 माशा 
शहद के साथ दें। 

इस अवस्था में 'सर्वज्वर लौह', चंदनादी लौह, कुमुदेश्वर रस का प्रयोग करा सकते हैं। 

रकतीष्ठीवन की अवस्था में निम्न औषद्ध योग लाभ करते हैं: 

(1 ) बसंत मालती             - 1 रत्ती 
     रक्तपित्त कुलकंडन रस - 1 रत्ती 
    शत मूल्यादी लौह           - 2 रत्ती 
    लाक्षा चूर्ण                     - 4 रत्ती 
   सितोपलादि चूर्ण            - 4 रत्ती 
तीन मात्राएं शहद के साथ दें। 

( 2 ) शुद्ध स्वर्ण गैरिक        - 2 रत्ती 
      दुग्ध पाषाण               - 4 रत्ती 
दो मात्राएं । 

( 3 ) उशीराशव              - 1 तोला 
समान जल मिला कर भोजनोपरांत । 
( 4 ) स्वर्ण माक्षिक भस्म     - 1 रत्ती 
      प्रवाल पिष्टि             - 2 रत्ती 
     वासवलेह                 - 1 तोला
रात को एक मात्रा बकरी के दूध से दें। 
( 5 ) एलादी बटी चूसने के लिए दें। 
(6 ) चंदनादि तैल या लाक्षादि तैल  का अभ्यंग (मालिश ) करें। 

यदि रोगी का श्वास फूलता हो तो श्वास कास चिंतामणि, श्वास चिंतामणि, बृहन्मृगांक बटी, महाश्वासारिलौह का प्रयोग करना चाहिए। 
ज्योतिषीय उपचार : 
चंद्र, मंगल व शनि के संयुक्त प्रकोप से TB रोग होता है अतः प्रतिदिन 108 बार पश्चिम की ओर मुख करके व पृथ्वी से इंसुलेशन बनाते हुये (लकड़ी, रेशम या पोलीथीन के आसान पर बैठ कर )इन मंत्रों का जाप करें: 
1- ॐ सों सोमाय नमः 
2- ॐ अंग अंगारकाय नमः 
3- ॐ शम शनेश्चराय नमः

Tuesday, 24 March 2015

टी बी कारण और निवारण --- विजय राजबली माथुर

विश्व टी बी दिवस पर विशेष :
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राज्यक्षमा शोष (PULMONARY TUBERCUOSIS ):

रस आदि धातुओं का शोषण करने के कारण यह शोष कहलाता है, शरीर की क्रियाओं का क्षय करने के कारण इसे क्षय कहते हैं।  राज्यक्षमा नाम से भी इसे जाना जाता है। इसकी उत्पति चार कारणों से होती है । :---
(1) वेग धारण - चरक के अनुसार वायु,मूत्र और मल के वेगों को रोकने से इस रोग का जन्म होता है। 
(2 ) साहस - शक्ति /क्षमता से अधिक कार्य करना साहस कहलाता है। अत्यंत बलवान व्यक्ति से मलयुद्ध करना, अत्यधिक भार उठाना, दौड़ते हुये बैल,घोड़े आदि पशुओं को रोकना, अत्यंत वेग से दौड़ना या साईकिल आदि चलाना, प्रदशनार्थ मोटर आदि वाहनों को रोकना अथवा घोड़े,हाथी आदि शरीर पर से निकालना - इस प्रकार के कार्य करने से फुफ्फ़ुसों पर अत्यधिक ज़ोर पड़ता है। जिससे फुफ्फ़ुस प्रसार ( EMPHYSEMA ) क्षत आदि रोग होकर अंततः राज्यक्षमाहो जाता है। 
(3) विषम भोजन - भोजन में गड़बड़ी होने से शरीर की प्रायः सभी क्रियाएँ विकृत हो जाती हैं। 
(4 ) क्षय - इसका आशय धातु क्षय से है। अति मैथुन,अनशन,रक्त-स्त्राव,वमन,विरेचन आदि संशोद्धन क्रियायों के अति योग, चिंता, भय, क्रोध,शोक,ईर्ष्या आदि से एवं प्रायः सभी रोगों के फलस्वरूप धातुओं का  धातु क्षय होता है। किसी एक धातु के क्षीण होने के फलस्वरूप अन्य धातुओं का क्षय होता है। 
कफ प्रधान दोषों के द्वारा रसवाही स्त्रोतों का अवरोध होने पर अथवा अत्यधिक मैथुन करने वाले व्यक्ति का वीर्य क्षीण हो जाने पर सभी धातुओं का क्षय होता है। इसलिए वह व्यक्ति सूखता है  अथवा शोश  रोग (राज्यक्षमा) को प्राप्त होता है। 
शोष रोग के पूर्व रूप - श्वास फूलना, अंगों में पीड़ा, कफ स्त्राव, तालू सूखना, वमन, मंदाग्नि, मद, पीनस, खांसी, निद्रा ये लक्षण शोश रोग उत्पन्न होने के पूर्व होते हैं और यह प्राणी सफ़ेद नेत्र वाला, मांस-प्रेमी और कामी हो जाता है। सपनों में वह कौवे, तोते, सेही, नीलकंठ, गिद्ध, बंदर और गिरगिट की सवारी करता है और वह जल हीं नदियां तथा वायु, धूम्र और दावानल से पीड़ित शुष्क वृक्षों को देखता है। 

राज्यक्षमा के लक्षण - कंधों, पार्श्वों, हाथों और पैरों में दाह एवं पीड़ा और सारे शरीर में ज्वर, ये राज्यक्षमा के लक्षण हैं। 

अरुचि, ज्वर, श्वान्स, कास, रक्त गिरना और स्वर-भेद ये छह लक्षण राज्यक्षमा के होते हैं। 
 स्वर-भेद कंधों और पार्श्वों में संकोच और शूल वात प्रकोप के कारण, ज्वर, दाह, अतिसार और रक्त-स्त्राव पित्त के प्रकोप के कारण और सिर में भारीपन, कास धसका  ( अथवा गला फटा हुआ सा प्रतीत करना ) कफ के प्रकोप के कारण समझना चाहिए। 

*इन 11 लक्षणों अथवा कास, अतिसार, पार्श्व-वेदना, स्वर-भेद, अरुचि और ज्वर-इन छह लक्षणों से युक्त कास, श्वान्स और रक्त - स्त्राव, इन लक्षणों से पीड़ित शोष रोगी असाध्य होते हैं।   
*बलमांस का क्षय हो चुकने पर सब अर्थात 11 के आधे साढ़े पाँच अथवा छह अथवा तीन ही लक्षणों से युक्त रोगी भी असाध्य हैं। किन्तु इसके विपरीत होने अर्थात बलमांस का क्षय विशेष न हुआ हो तो सभी लक्षणों से युक्त रोगी चिकित्सा द्वारा ठीक हो सकते हैं। 
*जो बहुत भोजन करने पर भी क्षीण होता जाता हो, जो अतिसार से पीड़ित हो और जिसके उदर और अंडकोशों में शोथ हो ऐसे रोगी असाध्य होते हैं। 
*जिसके नेत्र सफ़ेद हो गए हों, भोजन से चिढ़ता हो, जो ऊर्ध्व श्वान्स से पीड़ित हो, जिसे कष्ट के साथ बहुत मूत्र होता हो भी असाध्य होते हैं। 
*वात व्याधि, अपस्मार, कुष्ठ, व्रण, जीर्ण-ज्वर, गुल्म, मधुमेह और राज्यक्षमा से पीड़ित व्यक्ति बलमांस का क्षय होने पर असाध्य हो जाते हैं। 
परहेज - इस रोग में औषद्धियों से ज़्यादा परहेज का महत्व है। रोगी को आवश्यकतानुसार प्रचुर मात्रा में दूध-मांस-अंडा-फल-मक्खन-घी आदि का तथा सुस्वादु भोजन का प्रयोग करना चाहिए। 
सामान्य उपचार :
(1 ) स्वर्ण बसंत मालती रस --- 1 रत्ती 
       श्रंगाराभ्र                       --- 1 रत्ती 
       प्रवाल पिष्टी                 --- 2 रत्ती 
       सितोपलादि                 --- 4 रत्ती 
( ऐसी तीन मात्राएं शहद में मिला कर दें )
(2 ) द्राक्षारिष्ट               ---     1 रत्ती 
( भोजनोपरांत समान जल मिला कर पिलाएँ )
(3 ) मृग शृंग भस्म         --- 1 तोला 
      प्रवाल भस्म             --- 1 रत्ती 
      च्यवनप्राश              --- 1 तोला 
( सोते समय बकरी के दूध के साथ)
(4) मचंदनादी तेल से मालिश करें। 
नोट- बसंत मालती के स्थान पर मृगाङ्क , राज मृगाङ्क हेमगर्भ रस का प्रयोग भी कर सकते हैं। यदि पीलापन हो तो सतमूलादी लौह अथवा यक्षमानतक लौह का प्रयोग करना चाहिए।  
क्रमशः ..........................................................